संसार में हम दो तरह की चीजों में आसानी से अंतर कर पाते हैं: पदार्थ और विचार।
पदार्थों में सारे भौतिक संसार की वस्तुएँ आ जाती हैं, हमारी कुर्सी, कार, सितारे, और उल्कापिंड। विचारों में आ जाते हैं, प्रेम, लोकतंत्र, सौंदर्य, मानवता, विश्वास और संदेह।
ये वर्ग स्वाभाविक रूप से हमें समझ आते हैं। पर विचारों को गहरा करने पर हम देखते हैं कि विचारों में और पदार्थो में एक तारतम्य है। उदाहरण के लिए उदासी एक विचार है पर अवसाद एक ऐसी बीमारी है जिसे सिर्फ विचारों और प्रेरणादायक साहित्य से ही नहीं सुलझाया जा सकता। आपके मस्तिष्क में रसायनों का संतुलन बिगड़ना एक भौतिक समस्या है जिसके लिए दवा की जरूरत होती है। और इसके उलट कोई घटना आपके मस्तिष्क के रासायनिक संतुलन को बिगड़ सकती है और विचारों से पदार्थ में परिवर्तन हो जाता है।
तो भौतिक और मानसिक जगत के तारतम्य को जब हम देख पाते हैं तब एक और चीज है जो संसार को समझने, और उसके द्वारा जीवन को, में बहुत जरूरी है। वह है संसार का ढांचा।
विचार और पदार्थ से परे संसार में जड़त्व का नियम भी है और गुरुत्वाकर्षण का एक विशेष सांख्यिक रूप। इन प्राकृतिक सिद्धांतो की मानव मस्तिष्क पर निर्भरता नहीं है। ये संसार में हैं, संसार का हिस्सा हैं, और ये खुद संसार हैं।
हम मस्तिष्क को चाहे आत्मा शब्द दें या चैतन्यता यह स्पष्ट है की संसार के रूप से इसका तारतम्य कुछ ऐसा है की हमारा जीवन इसी के सिद्धांतों के अधीन है।
आध्यात्म और भौतिकता को जबरदस्ती अलग करना एक भ्रामक छलावा है जिसमें अक्सर हम आ जाते हैं क्योंकि स्वाभाविक तौर पर हमें यह नजरिया मिलता है।
अब आते हैं जीवन पर।
पदार्थों के अस्तित्व के बीच कभी बहुत पहले कुछ ऐसी रासायनिक संरचनाओं का निर्माण हुआ जिनमें स्वयं के रूप को बचाय रखने की प्रवत्ति थी। प्रोटीन से बनी ये संरचनाये एक दूसरे से प्रतियोगिता करतीं थी जिसमें इन्होंने अपने ऊपर वसा के कवच पहनकर खुद को अपनी सुरक्षा में ज्यादा से ज्यादा सक्षम बनाने की दौड़ शुरू की।
इन्हीं ने उस वसा के कवच को अपनी सुविधा से ढालने का जो नया काम शुरू किया उसे हम पहले शरीर का निर्माण कह सकते हैं। यही प्रक्रिया बाद में एक कोशीय जीव के रूप में जीवन को अपने उस रूप में ले आयी जिसे हम जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में प्रयोग करते है।
उसके बाद की कहानी ऐसे शरीरों के जटिलता के विकास की कहानी है जिसे हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण विज्ञानी डार्विन ने प्रतिपादित किया। इसी विकास की प्रक्रिया में मनुष्य एक कड़ी के रूप में कुछ 2 लाख साल पहले अपने वर्तमान रूप में आया।
बहरहाल, स्वयं की रक्षा इन शरीरों का जैविक उद्देश्य नही है। इनका उद्देश्य है अपने जीन की रक्षा। विकास के इतिहास में जीन की रक्षा के लिए शरीर की क़ुरबानी देना एक आम स्वभाव रहा है।
ये जीन ही जीवन की मूल इकाई है जो हमारे स्वभाव और व्यवहार से लेकर समाज के व्यवहार तक बहुत कुछ निर्धारित करती है।
तो क्या हम जीन की रक्षा के लिए प्रोग्राम की हुई मशीनों से ज्यादा कुछ नही?
हम हैं।
मस्तिष्क की शुरूआत तो हुई जीन की रक्षा के लिए वसा के कवच के रूप में, और ये कवच फिर तमाम अन्य पदार्थों से मिलकर हमारे वर्तमान शरीर में ढला। पर मस्तिष्क के विकास के साथ ही प्रकृति के सौंदर्य, जीवन के उद्देश्य के प्रति जिज्ञासा, व्यक्तित्व और सार्वजनिक अवधारणाओं का जन्म हुआ, जिसके एक परिमार्जित संकलन को हम मानवता कहते हैं।
इन अवधारणाओं ने मस्तिष्क को जीन की गुलामी से मुक्त कर दिया। आज का मानव मानवता के लिए शरीर का परित्याग कर सकता है चाहे उसके जीन के लिए लाभदायक हो या न हो।
विकास की इस कड़ी में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो जीवन पर विचार करता है और इसे सार्थक बनाने के लिए अपने भीतर एक प्रबल आवेश पाता है।
हमारे पास अपनी मर्ज़ी है। स्वतंत्र इच्छा! हमारा जीवन कई अबूझ पहेलियों के आगे खड़ा है जैसे की क्या यह स्वत्रंत इच्छा केवल मानव के विकास के साथ ही अस्तित्व में आयी या यह संसार का एक सामान्य गुण है जो हमारे अस्तित्व से परे भी संसार की बुनावट में निहित है?
धार्मिक सिद्धांत इस इच्छा को एक बाहरी गुण के तौर पर रखते हैं और ईश्वर जैसी संकल्पनाओं का प्रायोजित करके जीवन को कुछ उद्देश्य देने का प्रयास करते हैं।
आध्यात्मिक सोच उसी धार्मिक आधार को लेकर इस इच्छा और चैतन्यता को एक वृहद सांसारिक ताने का नाम देकर आत्मचिंतन को आदर्श क़रार देती है।
और तार्किक सोच पहले तो इस इच्छा की स्वत्रंता पर सवाल उठती है फिर जीवन को उसके जैविक रूप से परे होकर स्वयं के लिए उद्देश्य निर्माण करने की तरफदारी करती है।
इन सब विकल्पों के बीच हमारे पास जीवन है, उसे जीने के लिए तरीके चुनने का कठिन सवाल है और इसकी सार्थकता या निर्थकता पर अपना दावा रखने की स्वत्रंतता है।
हम उपलब्ध विकल्पों में से किसी पर श्रद्धा रखके इसे जी सकते हैं, या किसी उपलब्ध विकल्प को अपनी सोच के हिसाब से अपनाकर खुद का एक तरीका बना सकते हैं, या फिर जीवन के चैतन्यता से परे के बाह्य के अस्तित्व को विचार से हटाकर, उसे अपने सामने उपलब्ध वर्तमान के अनुसार जिये जा सकते हैं।
अंततः जैविक-रासायनिक प्रक्रियायों का परिणाम मानवीय जीवन संसार के अस्तित्व और उसके सामने पाए हुए हमारे अपने अस्तित्व के बीच विचार कर सकने वाले एक चैतन्य मस्तिष्क के आकलनों और कर्मों का एक अवसर है जिसे कुछ भी बनाने की स्वतंत्रता हमारे पास है पर उसकी पूर्वनिर्धारित परिभाषा और उद्देश्य होने या ना होने की जानकारी होने से हम वंचित हैं।
यह वंचितता मानवीय जीवन का एक अभिन्न अंग है जिस पर हममें से हर किसी को अपना दर्शन रखने की बाध्यता है - और इसे अपना वांछित स्वरूप देने की जिम्मेदारी भी है।
तो चलिये जीते हैं और जीने देते हैं। जो एक न्यूनतम आदर्श हमें अपने जैसे और लोगों के अस्तित्व से स्वाभाविक तौर पर मिलता है।